उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा घटनाक्रम सामने आया है। मऊ से विधायक और बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी की विधानसभा सदस्यता को समाप्त कर दिया गया है। इस फैसले ने राज्य की सियासी हलचलों को एक बार फिर गर्मा दिया है। विधानसभा सचिवालय ने रविवार को विशेष आदेश के तहत अब्बास अंसारी की सीट को रिक्त घोषित किया और इसकी सूचना चुनाव आयोग को भेज दी गई है।
रविवार को भी खुला सचिवालय
सप्ताहांत के अवकाश के बावजूद विधानसभा सचिवालय को विशेष रूप से खोला गया। विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे ने इस कार्यवाही की पुष्टि करते हुए बताया कि अब्बास अंसारी की सीट को औपचारिक रूप से रिक्त घोषित कर दिया गया है और संबंधित पत्र निर्वाचन आयोग को भेज दिया गया है। यह फैसला दर्शाता है कि प्रशासन इस विषय को लेकर कितना गंभीर और तत्पर है।
क्या है मामला?
अब्बास अंसारी पर कई आपराधिक मामलों में कार्यवाही चल रही है। वह लंबे समय से जेल में बंद हैं और उन पर अवैध गतिविधियों से लेकर आर्म्स एक्ट तक के अंतर्गत मुकदमे दर्ज हैं। माना जा रहा है कि सदस्यता समाप्त करने का यह फैसला भी उनके जेल में रहने और न्यायिक प्रकिया से संबंधित है। संविधान के अनुच्छेद 190 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत अगर कोई विधायक लगातार 60 दिनों से अधिक विधानसभा में अनुपस्थित रहता है, और उसका वैध कारण स्वीकार नहीं किया जाता, तो उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है।
मऊ सीट पर उपचुनाव की संभावना
अब्बास अंसारी की सदस्यता समाप्त होने के साथ ही मऊ विधानसभा सीट अब आधिकारिक तौर पर रिक्त मानी जा रही है। ऐसे में अब चुनाव आयोग जल्द ही उपचुनाव की घोषणा कर सकता है। यह उपचुनाव न केवल मऊ की जनता के लिए महत्वपूर्ण होगा, बल्कि यह प्रदेश की राजनीति में भी एक नया मोड़ ला सकता है। अंसारी परिवार ने मऊ क्षेत्र में दशकों तक प्रभाव बनाए रखा है, लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं।
सियासी मायने और आगे की राह
इस घटनाक्रम के राजनीतिक मायने गहरे हैं। अब्बास अंसारी का नाम लगातार विवादों में रहा है, और उनके पिता मुख्तार अंसारी भी राजनीति में आपराधिक छवि के लिए जाने जाते रहे हैं। यह फैसला सरकार की ‘कानून का राज’ स्थापित करने की नीति का हिस्सा माना जा रहा है।
हालांकि अंसारी परिवार की ओर से इस पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया अब तक नहीं आई है, लेकिन आने वाले समय में इस मुद्दे पर सियासी बयानबाज़ी तेज़ हो सकती है। विपक्ष इस फैसले को राजनीतिक बदले की कार्रवाई बता सकता है, जबकि सरकार इसे न्यायिक प्रक्रिया और पारदर्शिता का परिणाम कहेगी।